अर्जुन उवाच।
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥1॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥2॥
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; ज्यायसी-श्रेष्ठ; चेत्–यदि; कर्मण:-कर्मफल से; ते आप द्वारा; मता-मानना; बुद्धि-बुद्धि; जनार्दन जीवों का पालन करने वाले, श्रीकृष्ण; तत्-तब; किम-क्यों; कर्मणि-कर्मः घोर–भयंकर; माम्-मुझे; नियोजयसि-लगाते हो; केशव-केशी नामक राक्षस का वध करने वाले, श्रीकृष्ण। व्यामिश्रेण-तुम्हारे अनेकार्थक शब्दों का; इव-मानो; वाक्येन-वचनों से; बुद्धिम् बुद्धि; मोहयसि–मैं मोहित हो रहा हूँ; इव-मानो; मे मेरी; तत्-उस; एकम्-एकमात्र; वद-अवगत कराए; निश्चित्य-निश्चित रूप से; येन-जिससे; श्रेयः-अति श्रेष्ठ, अहम्-मैं; आप्नुयाम्-प्राप्त कर सकू।
BG 3.1-2: अर्जुन ने कहा! हे जनार्दन, यदि आप ज्ञान को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं तब फिर आप मुझे इस भीषण युद्ध में भाग लेने के लिए क्यों कहते हैं? आपके अस्पष्ट उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है। कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो।
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पहले अध्याय में उस परिवेश का परिचय दिया गया था जिसमें अर्जुन के भीतर दुःख और अवसाद उत्पन्न हुआ और जिसके कारण श्रीकृष्ण को दिव्य आध्यात्मिक उपदेश देना पड़ा। दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अविनाशी आत्मा के दिव्यज्ञान का वर्णन किया। उन्होंने तब अर्जुन को एक क्षत्रिय योद्धा के धर्म के पालन का स्मरण करवाया और कहा कि इसका पालन करने के फलस्वरूप उसकी कीर्ति बढ़ेगी और स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी। अर्जुन को एक क्षत्रिय के रूप में अपने वर्ण से संबंधित धर्म का पालन करने की प्रेरणा देने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण ने फिर कर्मयोग के विज्ञान का सर्वोत्तम सिद्धान्त प्रकट किया और अर्जुन को कर्मफलों से विरक्त रहने का उपदेश दिया और यह कहा कि ऐसा करने से बंधन उत्पन्न करने वाले कर्म बंधनमुक्त कर्मों में परिवर्तित हो जायेंगे। उन्होंने बिना फल की इच्छा से कर्म करने के विज्ञान का नाम 'बुद्धियोग' रखा। इससे उनका अभिप्राय निश्चयात्मक बुद्धि द्वारा मन को नियंत्रित करते हुए उसे सांसारिक लालसाओं से विरक्त रखने और आध्यात्मिक ज्ञान के संवर्धन द्वारा बुद्धि को स्थिर रखने से था। उन्होंने कर्म का त्याग करने का परामर्श नहीं दिया अपितु इसके विपरीत उन्होंने कर्म के फल की आसक्ति का त्याग करने का उपदेश दिया। अर्जुन श्रीकृष्ण के अभिप्राय को यह सोंचकर गलत समझता है कि यदि ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है तब फिर वह इस युद्ध में भाग लेने जैसे कर्त्तव्य का पालन क्यों करें? इसलिए वह कहता है-"विरोधाभासी कथनों से आप मेरी बुद्धि को भ्रमित कर रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप करुणामय हैं और आपकी इच्छा मुझे निष्फल करने की नहीं है, अतः कृपया मेरे संदेह का निवारण करें।"